अरुंधति राय केवल एक नाम नहीं बल्कि आवाज है। महिला सशक्तिकरण के प्रतीक कहे जाने वाली अरुंधति का जीवन संघर्ष भरा रहा है। अंग्रेजी भाषा की लेखिका अरुंधतिने अपनी लेखकीय शैली के कारण काफी कम समय में लोकप्रियता हासिल की। प्रगतिवादी एवं यथार्थवादी लेखिका केवल राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपना मुकाम रखती है। वह भारत की पहली महिला लेखिका है जिन्हें बुकर पुरस्कार से नवाजा गया है। वे केवल एक संवेदनशील लेखिका भर नहीं बल्कि उनकी पहचान समाजसेवी एवं कुशल अभिनेत्री के रूप में भी होती है।
Another world is not only possible, she is on her way. On a quiet day, I can hear her breathing.
उनका जन्म 1961 के 24 नवंबर को हुआ था। उनकी मां मेरी राय सीरियाई ईसाई और पिता राजीव राय हिंदू बंगाली हैं। इनका प्रारंभिक बचपन केरल में ही गुजरा। जब वह 2 वर्ष की थी तो उनके माता-पिता अलग हो गए। वैसे उनके पिता चाय बागान में प्रबंधक थे। इन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में वास्तुकला की पढ़ाई की। वहां वह अपने पहले पति जेरार्ड दा कुन्हा से मिलीं, जो एक साथी वास्तुकला छात्र थे। उनकी शादी चार साल तक चली। उन दोनों को स्थापत्य कला से विशेष प्रेम नहीं था, इसलिए वे अपना पेशा छोड़कर गोवा चले गए।
वे अपना गुजारा करने के लिए केक बनाकर समुद्र तट पर बेचते थे। यह सात महीने तक चलता रहा जिसके बाद अरुंधती वापस दिल्ली लौट आई। इन्होंने अपनी कैरियर की शुरुआत बतौर अभिनेत्री के रूप में की। इनकी मुलाकात फिल्मकार प्रदीप कृष्ण से हुई और उन्हें मैंसी साहब फिल्म के लिए चुन लिया गया। इस दौरान वे फिल्मकार से इतनी प्रभावित हुई की उन्होंने उनसे विवाह ही कर लिया। उन्होंने मैंसी साहब में एक संवेदनशील आंखों और हाव-भाव से बात करने वाली आदिवासी की भूमिका अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से निभायी।
Pity the nation that has to silence its writers for speaking their minds.
इसके अलावा उन्होंने कई फिल्मों के लिए पटकथा भी लिखी। इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वंस (1989) और इलेक्ट्रिक मून (1992) को खासी सराहना मिली। 1993 में जब उन्हें उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के लिए बुकर पुरस्कार मिला तो साहित्य जगत का ध्यान उनकी ओर गया। इस पुस्तक में उन्होंने दक्षिण भारत की जाति-पांति के विश्वास, आस्था, विषमताओं के बीच जीवन जीते जुड़वां बच्चों की व्यथा का मार्मिक, मनोवैज्ञानिक व यथार्थ चित्रण किया है। इस उपन्यास पर उन्हें 16 लाख अमेरिकी डॉलर रायल्टी के तौर पर मिले और इसका 30 भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्होंने इस उपन्यास से प्राप्त 15 लाख की राशि नर्मदा बचाओ आन्दोलन में दान कर दी। उनकी पुस्तक डॉक्टर एंड सेंट : अंबेडकर गांधी डिबेट पुस्तक भी बेहद चर्चा में रही।
वह नर्मदा बचाओ आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं। इस बांध के निर्माण के विरोध में उन्होंने एक पुस्तक द ग्रेटर कॉमन गुड की रचना की। अमरीकी साम्राज्यवाद से लेकर, परमाणु हथियारों की होड़, नर्मदा पर बाँध निर्माण आदि कई स्थानीय एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्दों के खिलाफ आवाज बुलंद करती अरुंधति न्यायपालिका की अवमानना के आरोप में संक्षिप्त क़ैद काट चुकी है।वर्ष 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें अदालत का तिरस्कार करने का दोषी ठहराया था और उन पर 2 हजार रुपये के जुर्माने के साथ-साथ एक दिन के कारावास की सजा भी सुनाई थी। कई सामाजिक और पर्यावरणीय अभियानों में भाग ले चुकी अरुंधति को वर्ष 2002 में लंनन कल्चरल फ्रीडम अवार्ड और 2004 में सिडनी पीस प्राइज तथा 2006 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है।