असम, गुवाहाटी: असम के जाने-माने साहित्यकार डॉ. लखीनंदन बोरा का आज निधन हो गया। उनके पार्थिव शरीर का पूरे राजकीय सम्मान के साथ गुवाहाटी के नवग्रह श्मशानघाट में अंतिम संस्कार किया गया।
राज्य सरकार की ओर से परिवहन मंत्री चंद्रमोहन पटवारी ने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।मालूम हो कि कोरोना से स्वस्थ होने के बाद स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं के चलते गुवाहाटी के एक्शल केयर अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जहां उन्होंने आज अंतिम सांस ली। बोरा 89 वर्ष के थे।
उनके परिवार में पत्नी, दो बेटे और एक बेटी है। पद्मश्री से सम्मानित बोरा के संक्रमित होने की पुष्टि 20 मई को हुई और तब उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। हालांकि वे कोविड-19 से उबर गए थे, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी अन्य समस्याओं से पीड़ित थे तथा उनका उपचार चल रहा था।
उन्होंने 60 से अधिक किताबें लिखी, जिनमें अधिकांश उपन्यास और लघु कहानियों के संकलन हैं। उनकी पहली लघु कथा भावना (1954) रामधेनु पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। उनकी पहली पुस्तक दृष्टिरूपा (1958) में छपी थी। उनका पहला उपन्यास गंगा चिलोनिर पाखी का 11 भाषाओं में अनुवाद हुआ तथा 1976 में इस पर निर्देशक पदुम बरूवा ने फिल्म भी बनाई थी।
उनका एक बहुचर्चित उपन्यास पताल भैरवी रहा है, जिसे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। असम साहित्य सभा के अध्यक्ष रह चुके बोरा को सरस्वती सम्मान और असम घाटी साहित्यिक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
वर्ष 2015 में उन्हें चौथे सर्वोच्च भारतीय नागरिक पुरस्कार पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। वह अपने निधन तक एक मासिक असमिया साहित्य पत्रिका गरीयसी के संपादक के रूप में भी काम कर रहे थे।
उनके निधन पर राष्ट्रीय स्तर के अंधविश्वासी विरोधी नेता एवं मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉ दिव्याज्योति सैकिया ने गहरा शोक व्यक्त किया है।
उन्होंने कहा कि यह असमिया साहित्य के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति है। उनके साथ बिताए हुए लम्हों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा लगता है कि वे अपने पिता खो चुके हैं।

कई कार्यक्रमों में वे उनके साथ मंच भी साझा कर चुके हैं। पूरे असम के साथ उनके लिए भी यह खबर काफी दुखदाई है।