पश्चिम बंगाल, कोलकाता : दुर्गोत्सव में मां दुर्गा के स्वागत के साथ ही उत्सव एवं भक्ति के मौसम की शुरुआत हो चुकी है। कोरोना की कमजोर होती दूसरी लहर और तीसरी लहर की संभावित आशंका के बीच पश्चिम बंगाल में चारों ओर धूम नजर आ रही है। अक्टूबर को महालय के अवसर पर पितरों के तर्पण के साथ पश्चिम बंगाल में भी दुर्गा पूजा की शुरुआत हो चुकी है और अब यह पूरे शबाब पर है। वैसे तो देश के कोने कोने में दुर्गा पूजा मनाया जाता है लेकिन पश्चिम बंगाल में इसका अलग ही अंदाज देखने को मिलता है।
हालांकि कोरोना महामारी के मद्देनजर यहां भी सरकार ने दिशा निर्देश जारी किए हैं। वैसे भी कहा ही जाता है कि अगर दुर्गा पूजा का लुफ्त उठाना है तो बंगाली रिवाज से बेहतरीन तरीके से मनाए जाने वाले दुर्गा पूजा को एक बार अवश्य देखना चाहिए। यहां की दुर्गा पूजा की रौनक देखती ही बनती है। बड़े-बड़े पंडाल और आकर्षक मूर्तियों के साथ यहां का बंगाली समाज देवी दुर्गा की पूजा करता है। खासकर मां दुर्गा की विदाई यानी प्रतिमा विसर्जन के दिन तो यहां की महिलाएं सिंदूर खेला खेलती हैं।
यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद हुई थी। इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत पर भगवान को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था। मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर गंगा किनारे स्थित है प्लासी। इसी स्थान पर 23 जून 1757 को नवाब की सेना और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में युद्ध लड़ा और नवाब सिराजुद्दौला को शिकस्त दी।
हालांकि युद्ध से पहले ही साजिश के जरिए रॉबर्ट क्लाइव ने नवाब के कुछ प्रमुख दरबारियों और शहर के अमीर सेठों को अपने साथ कर लिया था. कहा जाता है कि युद्ध में जीत के बाद रॉबर्ट क्लाइव ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता था। उस वक्त अंग्रेजों के हिमायती राजा नव कृष्णदेव सामने आए। उन्होंने रॉबर्ट क्लाइव के सामने भव्य दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव पर रॉबर्ट क्लाइव भी तैयार हो गए थे। उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में दुर्गा पूजा का आयोजन किया गया था।